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प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने आज यहां स्वामी विवेकानंद की 150वीं जयंती के समापन समारोह को संबोधित किया। इस अवसर पर उनके भाषण का पाठ इस प्रकार है:-
हम आज यहां भारत माता के अनेक सपूतों में से एक की याद में उन्हें श्रद्धांजलि एवं सम्मान देने के लिए एकत्र हुए हैं। स्वामी विवेकानंद एक शिक्षक, एक महान दार्शनिक, एक महान धार्मिक संत, एक देशभक्त, एक राष्ट्रवादी और अंतर्राष्ट्रवादी थे। वह विश्व के भी नागरिक थे और इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि उनका संदेश विश्व के हर कोने तक गया है जिसने विश्व में उनके करोड़ों अनुयायियों को प्रेरित किया है। पिछले एक वर्ष से हम स्वामी जी के जीवन और उनकी शिक्षाओं पर आधारित उनके मूल्यों तथा संदेशों को 150वीं जयंती के रूप में मनाते आ रहे हैं। मेरा मानना है कि स्वामी जी की शिक्षाओं के तीन मुख्य केंद्र बिंदु हे जो समय की सीमाओं से परे और सार्वभौमिक आकर्षण युक्त है।
प्रथम: विश्व के सभी महान धर्म पृथ्वी पर शांति और सभी मानव समुदायों में सदभावना का संदेश देते हैं।
द्वितीय: भारत को विभिन्न समस्याओं से वास्तव में तभी मुक्ति मिलेगी जब उसका हर नागरिक गरीबी, उपेक्षा और रोगों से मुक्त होने का अहसास करेगा।
तृतीय: भारत और हमारी महान मातृभूमि को अपने आसपास तथा विश्व से अभी भी काफी कुछ सीखना है और साथ ही विश्व को ऐसा ही संदेश देना है और भारत तथा विश्व के बीच ज्ञान के इस द्विपक्षीय आदान-प्रदान की प्रक्रिया से हमें तथा पूरे मानव समुदायों को लाभ होगा।
मुझे उनकी विचारधारा को और विस्तारपूर्वक कहना है, और स्वामी जी के समन्वयात्मक दृष्टिकोण से व्यक्तिगत रूप से काफी प्रेरित हूं उन्होंने इसे बहुत ही साधारण लेकिन गहराई से पेश किया है। उन सभी ने, जिन्होंने वास्तव में कोई धार्मिक अनुभव हासिल किया है, इस बात को लेकर कभी विवाद नही किया कि इसे विभिन्न्ा धर्मों ने किस प्रकार व्यक्त किया है। वे जानते है कि सभी धर्मों की आत्मा समान है और इसी बात को लेकर उन्होंने कभी कोई झगड़ा नही किया कि इस अनुभव को किसी महिला या पुरुष ने एक ही भाषा में व्यक्त क्यों नहीं किया।
धर्म का यह समन्वयक एवं बहुलतावादी दृष्टिकोण हमारी धरती की प्राचीन सभ्यताओं और हिंदुत्व के विशालतम योगदान में से एक है। वसुधैव कुटुम्बकम यानी पूरा विश्व एक ही परिवार है, के विचार ने समूचे विश्व के करोड़ो लोगों को प्रेरित किया है।
लेकिन मेरा मानना है कि यह एक ऐसा विचार है जो विश्व को भारत तथा भारतीय दृष्टिकोण से अवगत कराता है।
शिकागो में 1893 में विश्व धर्म संसद में उनके ऐतिहासिक एवं मशहूर संबोधन जिसे एक विद्वान ने ''मानवीय वार्तालाप का शिखर'' कहा था स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि संप्रदायवाद, धर्मांधता और कट्टरपन ने काफी समय से इस सुंदर धरा को जकड़ रखा है और इन्होंने इस धरती पर नफरत फैलाई है और इस नफरत के चलते कई बार धरती मानव रक्त से पूरी तरह भीग गई, सभ्यताएं नष्ट हो गई तथा राष्ट्र हताशा में डूब गए। अगर ये दानव न हो तो मानव समाज आज जहां है उससे कहीं ज्यादा प्रगतिशील रहा होता।''
स्वामी विवेकानंद ने विश्व धर्म संसद में उम्मीद व्यक्त की थी कि ''आज सुबह इस महासम्मेलन के शुरू होने का संदेश जिस घंटे की आवाज से हुआ है, मेरी कामना है कि वह सभी तरह के कट्टरवाद या अत्याचार, चाहे वे तलवार से हुए हों या लेखनी से, सभी की समाप्ति का द्योतक बने। इनमें वे सभी धर्म विपरीत आचरण भी है जो समान लक्ष्य से लोगों के बीच फैलाए जा रहे हैं।''
मैंने स्वामी जी के इन तीन उद्वरणों का जिक्र इस बात को विशिष्ट रूप से दर्शाने के लिए किया है कि स्वामी जी के जीवन दर्शन, या उनकी शिक्षाओं को सम्मान देने का तब तक कोई लाभ नहीं होगा जब तक हम उनके विचारों, शिक्षाओं और आदर्शों को आत्मसात नहीं करेंगे, जिनका उन्होंने जोरदार समर्थन किया था। उनका हमारे लिए वह महान संदेश जो देश तथा इस उपमहादीप के लिए प्रासंगिक है कि सच्चा धर्म तथा सच्ची धार्मिकता नफरत तथा विघटन का आधार नहीं हो सकती है और यहां सभी धर्मों तथा पंथों के आपसी हित समान तथा सहिष्णुता का आधार है।
मेरा मानना है कि स्वामी विवेकानंद का दूसरा महत्वपूर्ण योगदान आधुनिक भारत के लिए भारतीय के मस्तिष्कों को आजादी तथा आत्मसम्मान के लिए प्रेरित करना था। उनका स्पष्ट संदेश ''उठो जागो और जब तक लक्ष्य हासिल नहीं हो जाता तब तक मत रूको'' एक आध्यात्मिक एवं राजनीतिक मुक्ति का संदेश था। सभी धर्मों की एकता के विचार को बढ़ावा देकर स्वामी जी ने सभी मनुष्यों की बराबरी तथा समानता को पूर्ण उत्साह के साथ बढ़ावा दिया था।
इसी वजह से उन्होंने उपनिवेशवाद तथा विदेशियों के शासन को खारिज करते हुए उसे मानव का अपमान बताया था।
उनके इस संदेश ने भारतीयो की उस नयी पीढ़ी को प्रेरित किया था जो एक तरफ तो अपने इतिहास अपनी धरोहर, अपने सभ्यतामूलक गुणों को पुन: खोज रहे थे और साथ ही साथ मुक्ति, बराबरी और बंधुत्व के आधार पर आधुनिक विश्व का हिस्सा बनना चाहते थे।
अंत में देवियों और सज्जनों, मैं आपका ध्यान स्वामी विवेकानंद के तीसरे महत्वपूर्ण संदेश की ओर आकृष्ट करना चाहता हूं जिसने करोडों को लोगों को प्रेरित किया और देश तथा विश्व तथा भारत एवं विश्व के बारे में मेरी सोच को आकार दिया।
आपको याद होगा कि स्वामी विवेकानंद पूर्वी एशिया होते हुए शिकागो पहुंचे थे और अमरीका जाते हुए उन्होंने मार्ग में चीन और जापान दोनों देशों में कुछ समय बिताया था। चीन और जापान के लोग अपने राष्ट्रीय विकास के लिए जो प्रयास कर रहे थे उन्हें देख कर वे अत्यंत प्रेरित हुए थे। स्वामी जी जापान के लोगों की राष्ट्र भक्ति और आधुनिकता की दिशा में किए गए उनके कार्यों से विशेष रूप से प्रभावित हुए थे। राष्ट्रीय गौरव, सांस्कृतिक विरासत पर गर्व, और साथ ही आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी जगत से सीखने के प्रति वचबद्धता के समीकरण ने स्वामी जी पर गहरा प्रभाव डाला था।
चीन और जापान की अपनी यात्राओं के बारे में स्वामी जी ने एक बार कहा था कि ''भारत के प्रति मेरे समस्त प्रेम, और मेरी समूची राष्ट्र भक्ति तथा प्राचीन के प्रति मेरी पूर्ण श्रद्धा के साथ, मैं यह कहे बिना नहीं रह सकता कि हमें अन्य राष्ट्रों से बहुत कुछ सीखना है। हमें हमेशा हर किसी से महान सीख प्राप्त करने के लिए विनम्रतापूर्वक तैयार रहना चाहिए। साथ ही, हमें यह बिलकुल नहीं भूलना चाहिए कि हमें विश्व को भी महान सीख देनी है''।
स्वामी विवेकानंद का साहस और अपने भाषणों के जरिए पाठकों में विश्वास पैदा करने की उनकी क्षमता मुझे विशेष रूप से प्रभावित करती रही है। वे किसी एक देवता पर या देवताओं पर अथवा किसी एक पंथ पर भरोसा न करते हुए स्वयं पर भरोसा करने में विश्वास रखते थे। अहंकार और दीनता से मुक्त आत्म सम्मान की यह भावना और अन्य लोगों से सीखने की आवश्यकता का सम्मान, उनकी दुर्लभ विशेषता थी। हमें आज के भारत में इस विशिष्टता को तत्परता के साथ हासिल करने और बनाए रखने की आवश्यकता है।
हमें पूरी विनम्रता के साथ स्वामी विवेकानंद से यह सबक सीखने होंगे। हमें यह सीखना है कि कैसे हम एक दूसरे को सहन करें, सभी धर्मों का सम्मान करें और अपने को लोगों के विकास तथा राष्ट्र के विकास के प्रति समर्पित करें। हमें यह भी विनय पूर्वक स्वीकार करना चाहिए कि हम विश्व से बहुत कुछ सीख सकते हैं। अत: हमें नए विचारों, नए अवसरों और नई चुनौतियों के लिए तैयार रहना चाहिए।
स्वामी विवेकानंद के जीवन और शिक्षाओं का उत्सव मनाने के लिए हमें सिर्फ अतीत को श्रद्धांजलि नहीं अर्पित करनी है। ऐसा करना भारत के इस महान सपूत को सम्मानित करने का गलत तरीका होगा। मुझे पूरा यकीन है कि स्वामी जी को सच्ची श्रद्धांजलि यह होगी कि 21वीं सदी, आज के भारत और भविष्य के भारत, के लिए हम उनकी शिक्षाओं और उनके विचारों की प्रासंगिकता को समझे।
मैं अपनी बात विश्व धर्म संसद में स्वामी जी के पहुंचने के एक प्रसंग के साथ समाप्त करना चाहूंगा। स्वामी जी जब शिकागो पहुंचे तो आयोजकों से यह जानकर उन्हें बड़ी निराशा हुई कि किसी प्रतिनिधि को बिना किसी अनुमोदन के प्रवेश नहीं दिया जाएगा और एक प्रतिनिधि के रूप में पंजीकरण के लिए अब बहुत देर हो चुकी है। किसी परिचित ने स्वामी जी को हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, जॉन हेनरी राइट से मिलवाया। पहली ही मुलाकात में प्रोफेसर ने उनके बारे में टिप्पणीं की थी, ''आपको स्वामी कहकर परिचय कराना कुछ ऐसे है जैसे कोई सूर्य से यह कहे कि आप अपने चमकने के अधिकार का परिचय दो''। प्रोफेसर राइट ने सम्मेलन के आयोजकों को खत लिखा, जिसमें कहा गया था कि ''यहां एक ऐसा व्यक्ति है जो इतना ज्ञानवान है कि उसके सामने हमारे सभी विद्वान प्रोफेसरों का ज्ञान कम पड़ता है''।
मैं प्रत्येक युवा भारतीय से अपील करता हूं कि चाहे आप किसी भी धर्म या संप्रदाय से संबंध रखते हों, आपको ऐसे व्यक्ति से प्रेरित होने की आवश्यकता है जो कि आपको अपने पूर्वजों की भूमि पर अपना भविष्य स्वयं बनाना है।
धन्यवाद, जय हिन्द।