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प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने आज नई दिल्ली में राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद की छठी बैठक को संबोधित किया। इस अवसर पर प्रधानमंत्री के भाषण का अनूदित पाठ इस प्रकार है:-
"राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद की इस बैठक में शामिल होने पर मुझे बेहद खुशी हो रही है। इस मंच की स्थापना राष्ट्रीय विकास परिषद की 14 मार्च, 1982 को आयोजित उसकी 36वीं बैठक में हुई थी। यह स्वर्गीय प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के दृष्टिकोण का एक हिस्सा था। इसकी स्थापना न केवल जल संबंधी राष्ट्रीय मुद्दों पर चर्चा करने के लिए अपितु अपर्याप्त राष्ट्रीय संसाधन के अधिक से अधिक विकास को ध्यान में रखते हुए विभिन्न लाभार्थियों के बीच जल के निष्पक्ष वितरण और इस्तेमाल के लिए, प्रशासनिक व्यवस्थाएं तथा नियमों पर विचार-विमर्श करने के लिए भी की गई थी। हमारा कर्तव्य आज उस दृष्टिकोण को पूरा करना है ताकि हम अपनी भावी पीढ़ी के लिए भविष्य में जल संरक्षित कर सकें।
मित्रों, राष्ट्रीय जल नीति-2012 का मसौदा तैयार करने से पहले किए व्यापक विचार-विमर्श के मुख्य अंश आपके सामने प्रस्तुत किए गए हैं। यह मसौदा जल क्षेत्र में मंडराते संकटों पर ध्यान देने का एक प्रयास है और समानता, निरंतरता तथा सुशासन के मूल सिद्धांतों पर आधारित भविष्य के लिए रोडमैप तैयार करना है। हमारे विचार-विमर्श में आज न केवल इन मूल सिद्धांतों को शामिल किए जाने की ज़रूरत है बल्कि इस वास्तविकता को समझने की भी ज़रूरत है कि हम अपने देश में जल प्रबंधन के भविष्य को लेकर एक महत्वपूर्ण दिशा की ओर बढ़ रहे हैं।
आज उपलब्ध आंकडें पूरी तरह यही दर्शाते हैं कि जल या इसकी कमी भविष्य में हमारी सामाजिक और आर्थिक वृद्धि को सीमित करने वाला घटक बन जाएगी। विश्व की लगभग 18 प्रतिशत जनसंख्या वाले देश में जहां उपयोग के लिए केवल 4 प्रतिशत स्वच्छ जल ही उपलब्ध है, भारत पहले ही जल की कमी से जूझ रहा है जो कि एक बहुत ही महत्वपूर्ण और ज़रूरी प्राकृतिक संसाधन है। जलवायु परिवर्तन देश में जल उपलब्धता की समस्या को और बढ़ा सकता है। घटते ग्लेशियरों के कारण हमारी प्रमुख नदियों के प्रवाह पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा और इससे हमारे लाखों लोगों के कल्याण के रास्ते में एक नया खतरा पैदा हो जाएगा।
तेज़ आर्थक वृद्धि और शहरीकरण आज मांग-आपूर्ति के अंतर को गहरा कर रहे हैं। हमारे जल क्षेत्र, उद्योगों से निकलने वाले कचरे के कारण तेज़ी से दूषित हो रहे हैं। कई क्षेत्रों में ज़मीन के नीचे से अधिक पानी निकाले जाने के कारण भूजल स्तर गिर रहा है जिससे वे फ्लोराइड, आर्सेनिक और अन्य रसायनों से दूषित हो रहे हैं। खुले में शौच करने की आदत काफी व्यापक है जो पीने योग्य जल को और दूषित कर रही है।
हमारे सीमित जल संसाधनों के सही ढ़ंग से इस्तेमाल और इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर हमारी सोच को बदलने की ज़रूरत है। जल के इस्तेमाल और उसके वितरण की योजना राष्ट्रीय दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर तैयार की जानी चाहिए। पर्याप्त जल संसाधनों वाले क्षेत्र अपने आस-पास के जल की कमी से जूझ रहे क्षेत्रों के कारण पहले ही परेशानी का सामना कर रहे हैं। अत: हमें राजनीतिक, वैचारिक और क्षेत्रीय मतभेदों से ऊपर उठने के साथ ही परियोजनाओं को लेकर अपनी संकीर्ण सोच से हटकर जल प्रबंधन के मुद्दों पर व्यापक सोच की ओर बढ़ना चाहिए।
बेसिन स्तर पर एकीकृत जल संसाधन योजना, जल संरक्षण, जल मार्गो का संरक्षण, हमारे जल स्तरों को बढ़ाना और उनके सतत प्रबंधन के साथ-साथ जल उपयोग क्षमता में सुधार लाने जैसे वे बृहद् क्षेत्र है, जहां तत्काल ध्यान देने की जरूरत है। हमारी सिंचाई प्रणाली को संकीर्ण अभियंत्रण-निर्माण-केन्द्रित दृष्टिकोण से निकालकर अधिक बहुक्षेत्रीय और भागीदारी दृष्टिकोण की ओर ले जाने की जरूरत है। निर्मित सिंचाई क्षमता और जिनका उपयोग किया जा रहा है, उनके बीच के अंतर को कम करने के लिए प्रोत्साहन देने की जरूरत है। हितधारकों द्वारा स्वयं के जल कीमत संबंधी पारदर्शी और भागीदारी तंत्र की ओर हमें बढ़ने की आवश्यकता है। जल संसाधनों के प्रबंधन में स्थानीय समुदायों को भी सक्रियता से भाग लेने की आवश्यकता है।
जैसा कि आप सभी जानते है कि, पेयजल सहित अन्य प्रयोजनों को पूरा करने में भू-जल प्रमुख भूमिका निभाता है। इसके महत्व के बावजूद इसे निकालने और प्रतिस्पर्धी उपयोगों के बीच समन्वय के लिए कोई नियम नहीं है। इसलिए इसे निकालने के लिए बिजली के इस्तेमाल को विनियमित कर भूजल का दुरूपयोग कम करने के लिए कदम उठाने की जरूरत है। हमें उस स्थिति की ओर भी बढ़ने की जरूरत है, जहां भूजल आम सम्पदा संसाधन के रूप में इस प्रकार समझा जाता है जिससे पेयजल की बुनियादी आवश्कता के साथ-साथ हमारे गरीब किसानों को सुरक्षा मिलती है।
राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में कल स्वीकृत की गई 12वीं पंचवर्षीय योजना में इन मुद्दों के साथ-साथ जल क्षेत्र से संबंधित अन्य मुद्दों पर प्रकाश डाला गया है, जहां ठोस और नये सुधार की जरूरत है। वास्तव में जल वह महत्वपूर्ण क्षेत्र है, जिसका मैंने कल अपने संबोधन में राष्ट्रीय विकास परिषद में जिक्र किया है।
जल क्षेत्र के परिव्यय में काफी वृद्धि की गई है। लेकिन यह परिव्यय तभी खरा उतरेगा, जब वे मेल खाते है और बेहतर प्रबंधन और सुशासन द्वारा समर्थित हो। जल शासन की आम परिपाटी पर एक राष्ट्रीय सहमति बनाना इसलिए जरूरी है कि इस ओर उठाया गया पहला कदम सभी के लिए जल सुरक्षा और उसकी निरंतरता बनाये रखने से संबंधित होना चाहिए।
बेहतर प्रबंधन को प्राप्त करने में प्रमुख समस्या यह है कि जल से संबंधित मुद्दों से निपटने वाले हमारे देश की मौजूदा संस्थागत और कानूनी सरंचना अपर्याप्त और खंडित है, जहां तत्काल सक्रिय सुधार की जरूरत है। इस संदर्भ में जल पर सामान्य सिद्धांत से संबंधित एक राष्ट्रीय विधिक रूपरेखा के लिए सुझाव दिया गया है, जो प्रत्येक राज्य में जल शासन पर आवश्यक प्रावधान के लिए रास्ता तैयार करेगा।
मित्रों इस परिपेक्ष्य में प्रस्तावित राष्ट्रीय विधिक रूपरेखा पर गौर करने की आवश्यकता पर जोर देना चाहूंगा। यह रूपरेखा सामान्य सिद्धांतों का एक सामूहिक वक्तव्य होगा जिसमें विधायिका, कार्यपालिका के कार्य या केंद्र, राज्यों तथा स्थानीय शासी निकायों द्वारा विकसित शक्तियां शामिल हैं। मैं दोहराना चाहूंगा कि केंद्र सरकार राज्यों को प्रदत्त संवैधानिक अधिकारों का न तो किसी प्रकार से अतिक्रमण करना चाहती है और न ही जल प्रबंधन का केंद्रीयकरण चाहती है।
जैसा कि हम 12वीं पंचवर्षीय योजना में हैं और भारतीय अर्थव्यवस्था तथा समाज को जल क्षेत्र में मात्रा और गुणवत्ता दोनों के संदर्भ में कठिन चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। इसलिए तत्काल और व्यावहारिक निर्णयों की जरूरत है। क्योंकि जल सुरक्षा एक ऐसा मुद्दा है जहां हमें एक साथ तैरना है या एक साथ डूबना है। इन निर्णयों पर आपके सामूहिक समर्थन की जरूरत है। मुझे आशा है कि इस बैठक में इन मुद्दों पर विस्तार से चर्चा होगी और हमारे देश के समग्र राष्ट्र हित में उचित सुझाव आयेंगे।
मैं आपकी चर्चाओं पर बहुत रुचि से गौर करुंगा।"