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नई दिल्ली – भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पिछले माह अनुसंधान एवं विकास पर राष्ट्र द्वारा किए जाने वाले खर्च को दोगुने से भी अधिक बढ़ाकर वर्ष 2017 तक 8 अरब डॉलर प्रति वर्ष करने का संकल्प किया। यह प्रतिज्ञा कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। मई 2004 में पदभार ग्रहण करने के बाद, श्री सिंह ने विदेशों में हमारे वैज्ञानिकों को घर वापस लाने के लिए पहल की, प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों का गठन किया, और अमरीका के राष्ट्रीय विज्ञान फाउंडेशन की तर्ज पर एक अनुदान एजेंसी की स्थापना की।
लेकिन भारतीय विज्ञान कांग्रेस में खुलकर व्यय करने की इस घोषणा के साथ-साथ इस पर गंभीर मूल्यांकन भी किया गया। श्री सिंह ने कहा कि "पिछले कुछ दशकों से विज्ञान के क्षेत्र में विश्व में भारत की तुलनात्मक स्थिति में गिरावट आई है, और चीन जैसे देश हमसे आगे निकल गए हैं,"। अंग्रेजी पत्रिका साइंस मैंगजीन को दिए गए विशेष साक्षात्कार में श्री सिंह ने इसी चिंता को दोहराया और टिप्पणी की कि "चीन कई मायनों में भारत से बहुत आगे है."।
भारतीय वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के पूर्व महानिदेशक रघुनाथ "रमेश " माशेलकर का कहना है कि अकादमिक हलकों में, श्री सिंह विद्वान और विचारक के रूप में विख्यात हैं। श्री सिंह का जन्म 1932 में गाह में हुआ, जो अब पाकिस्तान में है और दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में प्रोफेसर बनने से पहले वे, जब लड़के थे अपने स्कूल पैदल जाते थे और उन्होंने अपनी पढ़ाई गांव में, जहां बिजली नहीं थी, लालटेन की रोशनी में की। 1991 से 1996 तक वित्त मंत्री के रूप में श्री सिंह ने सुधारों को प्राथमिकता दी जिन्होंने भारत को दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में बदल दिया है।
विनम्र और शालीन श्री सिंह के मृदुभाषी व्यवहार में वह दृढ़ता है जो उन्होंने वैज्ञानिकों के महत्व के कुछ मुद्दों पर प्रदर्शित की। परमाणु ऊर्जा के मामले पर उन्होंने अपनी सरकार का भविष्य उस समय दांव पर लगा दिया था जब उन्होंने 2008 में विपक्षी पार्टियों के कड़े विरोध के बावजूद संयुक्त राज्य अमरीका के साथ विवादास्पद सौदे पर हस्ताक्षर किए जिसने भारत के असैनिक (सिविलियन) परमाणु उद्योग को बाहरी दुनिया के लिए खोल दिया । उन्होंने आनुवंशिक रूप से संशोधित (जीएम) खाद्य पदार्थों के मामले पर सतर्क रुख अपनाया;2009 में, जब वैज्ञानिकों के पैनल की सलाह को उनके अपने ही पूर्व पर्यावरण मंत्री ने अस्वीकार कर दिया तो उन्होंने कोई हस्तक्षेप नहीं किया और जीएम बैंगन के वाणिज्यिक रोपण पर तब तक के लिए प्रतिबंध लगा दिया जब तक अतिरिक्त सुरक्षा परीक्षण पूरे नहीं कर लिए जाते।
कुल मिलाकर, भारतीय वैज्ञानिक श्री सिंह को प्रधानमंत्री के रूप में उनके कार्यकाल के लिए उच्च अंक देते हैं। पिछले महीने, उन्होंने श्री सिंह को भारतीय विज्ञान कांग्रेस एसोसिएशन के शताब्दी वर्ष के दौरान इसका प्रधान अध्यक्ष निर्वाचित किया- वे ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्हें यह सम्मान मिला। प्रधानसंपादक ब्रूस अल्बर्ट्स, एशिया न्यूज संपादक रिचर्ड स्टोन, और भारतीय संवाददाता पल्लव बागला के साथ अपने निवासस्थान पर एक साक्षात्कार में श्री सिंह ने चीन से प्रतिस्पर्धा, जीएम खाद्य परिचर्चा में विदेशी हस्तक्षेप, ऐसे देश में जहां 42% बच्चे कुपोषण के शिकार हैं विकास हेतु अनुसंधान एवं विकास का इष्टतम उपयोग करने के तौर-तरीकों के बारे में अपने विचार व्यक्त किए। स्पष्टता और संक्षिप्तता के लिए निम्नलिखित प्रतिलेख को संपादित किया है।
-पल्लव बागला और रिचर्ड स्टोन
प्रश्न : पिछले महीने भारतीय विज्ञान कांग्रेस में आपने कहा था कि "हमें भारतीय विज्ञान का चेहरा बदलने के लिए बहुत कुछ करने की जरूरत है," कृपया विस्तार से बताएं।
मनमोहन सिंह : हां, हमें अनुसंधान और विकास पर बहुत अधिक खर्च करने की जरूरत है। हम अनुसंधान एवं विकास पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का लगभग 1% खर्च करते हैं और मैंने कहा था कि हमें इसे बढ़ा कर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का लगभग 2% करना चाहिए। हमें ऐसे क्षेत्रों में बहुत अधिक पैसा खर्च करने की जरूरत है जहां हमारे विकास की जरूरतें विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नवाचार के क्षेत्र में विकास से पूरी होती हैं । इस प्रकार, आज हमारे देश में ऐसी स्थिति है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में, जहाँ तक सार्वजनिक क्षेत्र का संबंध है, अनुसंधान और विकास पर हमारे सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का अनुपात लगभग वही है जो अन्य विकासशील देशों का है, हमारे देश में निजी क्षेत्र द्वारा इस दिशा में बहुत कुछ किए जाने की आवश्यकता है।
प्रश्न :उद्योग के लिए किस प्रकार के प्रोत्साहन काम कर सकते हैं?
मनमोहन सिंह : इन मामलों पर कम अवधि में निर्णय नहीं लिया जा सकता है। यह मध्यम-अवधि की प्रक्रिया है। हमारे पास एक योजना है जिसे अप्रैल से अगले पाँच वर्षों के लिए शुरू किया जाएगा। हमारा प्रयास अनुसंधान एवं विकास पर किए जाने वाले धन के अनुपात को धीरे-धीरे बढ़ाने के साथ-साथ प्रोत्साहन प्रणाली तैयार करना होगा जो निजी क्षेत्र को विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर अपने खर्च में वृद्धि करने के लिए प्रेरित करेगा।
प्रश्न : संयुक्त राज्य अमरीका में, उच्च शिक्षा प्रणाली पर कुल अनुसंधान और विकास खर्च का 17% खर्च किया जाता है, जबकि भारत में यह 4% है। यह समकक्ष देशों की तुलना में सबसे कम प्रतिशत है। क्या यह एक ऐसी समस्या है जिसे दूर किए जाने की जरूरत है?
मनमोहन सिंह: हमें शिक्षा पर बहुत अधिक धन खर्च करने की आवश्यकता है, उच्च शिक्षा पर तो और भी अधिक । हमने आईआईटी [भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों) की संख्या बढ़ा दी है । हमने बड़े पैमाने पर सूचना प्रौद्योगिकी संस्थानों की संख्या में वृद्धि की है। हम जिन्हें नवाचार विश्वविद्यालय कहते है उनकी संख्या बढ़ाने जा रहे हैं। इसलिए मुझे विश्वास है कि अगले 5 से 10 साल में भारत में उच्च शिक्षा का परिदृश्य काफी बदल जाएगा।
हमारी असली समस्या विशेषज्ञ शिक्षण स्टाफ है। हम अधिक से अधिक लोगों को विज्ञान और प्रौद्योगिकी में पीएच.डी. करने के लिए प्रेरित करने का प्रयास कर रहे हैं। मुझे लगता है कि हमारे प्रयासों का कुछ प्रभाव पड़ा हैं, लेकिन उतना नहीं जितना उच्च शिक्षा प्रणाली की हमारी जरूरतों को पूरा करने के लिए आवश्यक है। इसलिए, हमें भी कुछ ऐसे अभिनव तरीके खोजने होंगे, जिससे विदेशी विश्वविद्यालयों में विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमरीका में काम कर रहे भारतीय कुछ समय हमारे देश में भी पढ़ाने के लिए निकाल सकें।
प्रश्न : आपने विज्ञान कांग्रेस में अपने भाषण में भारत की विकास संबंधी जरूरतों का समाधान करने के लिए अनुसंधान के माध्यम से और अधिक कार्य करने की आवश्यकता का भी उल्लेख किया । भारतीय गांवों में विज्ञान के लाभ पंहुचाने के लिए (कृषि वैज्ञानिक) एम.एस. स्वामीनाथन द्वारा किए गए प्रयास इसका एक अच्छा उदाहरण है। क्या भारत को इस प्रकार के विज्ञान में निवेश करने के लिए और अधिक प्रयास करने की जरूरत है, यदि हां तो, यह कैसे किया जा सकता है ?
मनमोहन सिंह : हमें कृषि के विकास पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है। इससे ग्रामीण विकास की गति बढ़ेगी जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में जल-प्रबंधन प्रोद्यौगिकी के विकास, पर्यावरण-अनुकूल प्रौद्यौगिकी के विकास, और संचारी रोगों के क्षेत्र में हमारे वैज्ञानिकों के लिए अवसर बढ़ाने में सहायता मिलेगी। हमें संचारी रोगों की समस्या से निपटने के लिए अनुसंधान और विकास पर और अधिक ध्यान देना होगा। हम दोहरी बाधा झेल रहे हैं। कुछ ऐसी बीमारियां हैं जो खासतौर पर विकासशील देशों में होती हैं, लेकिन कुछ ऐसी भी बीमारियां हैं , मैं समझता हूं जिनका संबंध विकास के किसी स्तर से नहीं होता हैं, और इन दोनों ही क्षेत्रों में हमारे पास अवसर हैं।
भारतीय कृषि अनुसंधान प्रणाली को भी उन समस्याओं से निपटने के लिए अधिक उपयोगी बनाया जा सकता है जिसे मैं प्रायः एक दूसरी हरित क्रांति के रूप में वर्णित करता हूं। हम शुष्क भूमि कृषि की उत्पादकता बढ़ाने में मुश्किलों का सामना कर रहे हैं। इसका मतलब है कि ऐसी प्रौद्योगिकियों पर जो पानी बचाएंगी और जो ऊर्जा का संरक्षण करेंगी, अधिक ध्यान दिया जाएगा।
प्रश्न : आपकी सरकार ने बीटी बैंगन को स्वीकृति देने पर रोक क्यों लगाई?
मनमोहन सिंह : जैव प्रौद्योगिकी में काफी संभावनाएं हैं, और हमें भी समय के साथ जेनेटिक इंजीनियरिंग प्रौद्योगिकियों का उपयोग करना होगा जिससे हम अपनी कृषि की उत्पादकता बढ़ा सकें। लेकिन इस बारे में एक राय नहीं है। कुछ गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) हैं, जिन्हें संयुक्त राज्य अमरीका और स्कैन्डिनेवाई देशों से अक्सर धन मिलता है, जो हमारे देश की विकासात्मक चुनौतियों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण नहीं रखते हैं। लेकिन हम लोकतांत्रिक देश हैं, हम चीन की तरह नहीं हैं।
आप जानते ही हैं, उदाहरण के लिए, कुडनकुलम में [दक्षिणी भारत में, जहां स्थानीय गैर-सरकारी संगठन के नेतृत्व में किए जा रहे विरोध ने दो 1000 मेगावाट के परमाणु रिएक्टरों को आरंभ नहीं होने दिया है] क्या हुआ। परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम कठिनाइयों में फंस गया है क्योंकि ये गैर-सरकारी संगठन, इनमें से अधिकांश, मुझे लगता है, संयुक्त राज्य अमरीका आधारित हैं, हमारे देश के लिए ऊर्जा आपूर्ति को बढ़ाने की जरूरत को महसूस नहीं करते हैं।
प्रश्न : जापान में फुकुशिमा आपदा के बाद, आपको अभी भी लगता है कि भारत में परमाणु ऊर्जा की कोई भूमिका है?
मनमोहन सिंह : हाँ, जहां भारत का संबंध है, हाँ। हमारी जनसंख्या के विचारशील लोग निश्चित रूप से परमाणु ऊर्जा का समर्थन करते हैं।
प्रश्न: विज्ञान कांग्रेस में, आपने अपनी इस भावना का उल्लेख किया कि विज्ञान के क्षेत्र में चीन भारत से आगे निकल गया है। क्या आप चीन के साथ प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं?
मनमोहन सिंह : हम प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं, हाँ और नहीं। भारत और चीन विकास के ऐसे चरण में हैं, जहां हम दोनों को प्रतिस्पर्धा और सहयोग दोनों ही करना होगा। हम दो सबसे बड़े विकासशील देश और दो सबसे तेजी से बढ़ते देश हैं। चीन हमारा बड़ा पड़ोसी है। 1960 के दशक में हमारी अपनी समस्याएं थीं, लेकिन हम सहयोग बढ़ाने के रास्ते तलाश रहे हैं।
प्रश्न : भारत ने अंतरिक्ष में बहुत बड़ी मात्रा में निवेश किया है।
मनमोहन सिंह : और इसके परिणाम मिलने लगे हैं।
प्रश्न: देश अंतरिक्ष में यात्री भेजना चाहता है। भारतीय जमीन से भारतीय रॉकेट का उपयोग करके, भारतीय अंतरिक्ष यात्री। क्या आप इसका समर्थन करते हैं?
मनमोहन सिंह : हमने चंद्रयान मिशन का समर्थन किया । और मैं समझता हूं कि उपग्रह प्रौद्योगिकी, रॉकेट प्रौद्योगिकी, भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के अत्यंत लाभदायक परिणाम हैं और हमें और अधिक करने की जरूरत है।
प्रश्न : लेकिन अंतरिक्ष यात्री कार्यक्रम के बारे में क्या? भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन 2.5 अरब डॉलर मांग रहा है। आप समावेशी विकास की बात करते हैं। इस समावेशी विकास में, मानव अंतरिक्ष उड़ान कैसे फिट बैठती है?
मनमोहन सिंह : विज्ञान और प्रौद्योगिकी को अंततः हमारे लोगों का जीवन-स्तर बढ़ाने के साधन के रूप में ही देखा जाना चाहिए। अब, यदि सूचना प्रौद्योगिकी को हमारे देश के विकास को बढ़ावा देने के रूप में देखा जा सकता है , विशेष रूप से समावेशी शैली के विकास में, तो मैं समझता हूं लोग अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी को गरीबी, अज्ञानता और बीमारियों के सतत अभिशाप से निपटने के नए तरीके के रूप में भी देखेंगे। विज्ञान और प्रौद्योगिकी हमारी अर्थव्यवस्था के विकास के नए रास्ते खोजने का सर्वश्रेष्ठ साधन हैं।
प्रश्न : आप आगले 20 वर्षों में भारतीय विज्ञान के भविष्य को कैसे देखते हैं?
मनमोहन सिंह : भारतीय विज्ञान का भविष्य बहुत उज्ज्वल है। मुझे कोई संदेह नहीं है कि हम नई ऊंचाइयां पार करेंगे, नए क्षेत्रों का पता लगाएंगे, और इससे भी अधिक, युवा लोग विज्ञान को कैरियर के रूप में अपनाएंगे। स्थितियां पहले से बेहतर होने लगी हैं।
आपको आशावादी होना चाहिए । गरीब देशों में, यदि आप आशावादी नहीं है तो आप किए जाने वाले विभिन्न प्रकार के विकास कार्यों को देखकर भ्रमित हो जाते हैं।