भाषण [वापस जाएं]

July 31, 2013
नई दिल्‍ली


प्रधानमंत्री ने श्री पी. चिदंबरम के सम्‍मान में लि‍खी गयी पुस्‍तक का विमोचन किया

प्रधानमंत्री डॉक्‍टर मनमोहन सिंह ने नई दिल्‍ली में एक पुस्तिका का विमोचन किया। श्री पी. चिदंबरम के सम्‍मान में लिखे गये लेखों के संग्रह के रूप में इस पुस्‍तक में भारत के विकास की रूपरेखा प्रस्‍तुत की गई है। इस अवसर पर प्रधानमंत्री द्वारा किए गये संबोधन का मूल पाठ नीचे दिया जा रहा है:-

"मैं अपने सम्‍मानित मित्र और वित्‍त मंत्री श्री पी. चिदंबरम के सम्‍मान में प्रकाशित लेख संग्रह की पुस्‍तक जारी करने के अवसर पर बहुत खुश महसूस कर रहा हूं। इस पुस्‍तक के लेखक हैं स्‍कोच फाउंडेशन के श्री समीर कोछड़ और इसमें सम्‍मानित विशेषज्ञ ने अनेक श्रेष्‍ठ निबंध लिखे हैं।

मैंने नोटिस किया है कि श्री चिदंबरम के बारे में जिन तारीख़ों का विवरण दिया गया है वह 1991 से संबंधित है। जब वह हमारे वाणिज्य मंत्री थे और हमारी व्‍यापार नीति में अनेक सुधार प्रस्‍तुत कर रहे थे। मैं उन्‍हें इससे पहले भी एक सुधारक के रूप में जानता था।

1986 में प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी ने उन्‍हें कार्मिक विभाग में राज्‍य मंत्री और बाद में आतंरिक सुरक्षा का मंत्री नियुक्‍त किया था। इन दोनों ही रूपों में श्री चिदंबरम ने सुशासन की प्रक्रिया के दौरान सुधारों की अगुवाई की। राजीवजी के मार्गदर्शन में उन्‍होंने नौकरशाहों के लिए एक मिड कैरियर प्रोग्राम की शुरूआत की। राजीवजी के मार्गदर्शन में उन्‍होंने आईआईएम और अन्‍य शिक्षण एवं अनुसंधान संस्‍थानों में काम कर रहे अधिकारियों के लिए इस कार्यक्रम का प्रारंभ किया। अनेक नौकरशाहों ने मुझे इसके बारे में बताया था और जानकारी दी थी कि किस प्रकार थोड़े समय के लिए वह शिक्षण संबंधी अध्‍ययन में लौटे और इस अनुभव से उन्हें जबरदस्त लाभ हुआ।

श्री चिदंबरम और मैं श्री नरसिम्हा राव के मंत्रिमंडल में साथी थे। उस समय में मैं वित्‍त मंत्री था और 1990 में आर्थिक सुधारों की शुरूआत की गई। मुझे याद है कि श्री चिदंबरम, जब भी इस कार्यक्रम की आलोचना होती थी, केन्‍द्रीय मंत्रिमंडल में और बाहर राजनीतिक मंचों पर भी इन आर्थिक सुधारों की जबरदस्त पैरवी किया करते थे।

शिक्षा से जुड़े अर्थशास्त्रियों ने भारत में आर्थिक सुधारों के बारे में काफी लिखा है। वह, यह चाहते थे कि यह प्रक्रिया तकनीकी सिफारिशों के अनुसार मंजूर कर ली जाए, जिसकी अर्थशास्‍त्री काफी दिनों से वकालत कर रहे थे। लेकिन व्‍यावसायिक सहमति बन जाने से ही आर्थिक सुधार सफल नहीं हो जाया करते। वे तब सफल होते हैं जब इन उपायों का समकालीन राजनीतिक नेतृत्‍व समर्थन करने का फैसला करता है।

लोकतंत्र में सुधार चाहे वह आर्थिक नीतियों के हों या संस्थानों के- ये मूल रूप से राजनीतिक प्रक्रियाएं होती हैं। हमें उन नीतियों के पक्ष में पर्याप्‍त मात्रा में राजनीतिक सह‍मति बनानी पड़ती है, जिन्‍हें हम अपनाना चाहते हैं। इनके लिए सिर्फ लोकतांत्रिक बहुमत होना काफी नहीं होता, क्‍योंकि पार्टियों के अन्‍दर भी मत भिन्‍नता होती है। आर्थिक सुधार वे ही सफल होते हैं जो समाज के एक पूरे वर्ग के लिए जरूरी होते हैं और वह वर्ग इन नीतियों की जरूरत समझे और उन्‍हें मंजूर करे और इस परिवर्तन को कोई सरकार शुरू करे।

1991 के आर्थिक सुधार एकाएक ही शुरू नहीं हो गये। 1980 के दशक के उत्‍तरार्ध में इस दिशा में कांग्रेस सरकार और उसके नेतृत्‍व श्री राजीव गांधी द्वारा काफी प्रयास किए गये। 1990 के कांग्रेस चुनाव घोषणा पत्र में भी कड़ा सुधार संदेश था। 1991 में जब कांग्रेस सरकार का गठन किया गया तो प्रधानमंत्री श्री नरसिम्‍हा राव के नेतृत्‍व में इन सुधारों के पक्ष में समर्थन पर्याप्‍त महत्‍वपूर्ण था।

1996 के बाद एक गैर कांग्रेसी सरकार आई जिसे वामपंथी मोर्चे का समर्थन था। इसका नेतृत्‍व श्री देवेगौड़ा कर रहे थे जिसे बाद में श्री आई के गुजराल ने सँभाला। 1991-96 के दौरान जिन नीतियों को लागू किया गया, उन्‍होंने इनमें से कई सुधारों को पीछे कर दिया और कई सुधारों को आगे बढ़ाया। इस बात ने श्री चिदंबरम को केन्‍द्रीय वित्‍त मंत्री के रूप में जरूर काफी मदद की होगी। संयुक्‍त मोर्चे की सरकार ने इस नीति को जारी रखने में सहायता की। लेकिन मैं भी इस विचार के पक्ष में हूं कि इससे इस तथ्‍य की भी झलक मिलती है कि घोर असह‍मति और बहस के नीचे वह तथ्‍य होता है जो लोकतंत्र की खास बात माना जाता है। वह है सहमति का धीरे-धीरे विकास।

इस पुस्‍तक के एक निबंध में श्री मोंटेक सिंह अहलुवालिया के 1991 के व्‍यापार संबंधी नीतिगत सुधारों में श्री चिदंबरम की महत्‍वपूर्ण भूमिका के विवरण दिये गये हैं। उस समय वे श्री चिदंबरम के वाणिज्‍य सचिव होते थे अत: जो उन्होंने विवरण दिया है वह आतंरिक परिदृश्‍य का परिचायक है और दिखाता है श्री चिदंबरम में जिस व्‍यापार नीति में सचमुच ही नाटकीय परिवर्तनों की शुरूआत की थी वे कितने महत्‍वपूर्ण थे। यह एक सच्‍चाई है कि पहली बार आर्थिक मंत्रालय का प्रभार संभालने के कुछ ही हफ्तों के अन्‍दर उन्‍होंने व्‍यापार नीति में महत्‍वपूर्ण ऐसे परिवर्तन किए जिनकी शिक्षाशास्‍त्री वर्षों से हिमायत करते आ रहे थे, यह उनके नेतृत्‍व के सर्वश्रेष्‍ठ गुणों को एक श्रद्धांजलि है।

मोंटेक ने इस अनुभव से छह बातें सीखीं जो आज भी सार्थक हैं। मेरे विचार में इन सीखों की फिर से चर्चा करना उपयोगी होगा।

पहला तो यह है कि जब भी सुधार किए जाते हैं, मंत्रियों को अपने विवेकाधिकार को उन अधिकारों के पक्ष में छोड़ने को तैयार रहना चाहिए। मोंटेक ने ठीक ही कहा था कि श्री चिदंबरम का विवेकाधिकार छोड़ने के लिए राज़ी होना सचमुच की महत्‍वपूर्ण था।

दूसरा,नये उपायों की शुरूआत करते हुए नेतृत्‍व को राजनीतिक जोखिम उठाने को तैयार रहना चाहिए।

तीसरा, नौकरशाही असमंजस को राजनीतिक नेतृत्‍व के रास्‍ते में बाधा नहीं बनना चाहिए। यह बात इसी से स्‍पष्‍ट है कि वह क्‍या करना चा‍हता है।

चौथा, ऐसे परिर्वतन लाना तब आसान हो जाता है जब पहले उस पर काफी चर्चा कर ली जाए और उस पर पर्याप्‍त रूप से सहमति बन जाए।

पांचवां, सुधारों के बारे में एक संपूर्ण रवैया अपनाया जाना चाहिए। टुकड़े-टुकड़े के प्रयास करने से काम नहीं बनेगा और आखिर में हमारे तंत्र में जब भी फैसला किया जाए तो जल्‍दी से कार्रवाई करने की क्षमता होनी चाहिए। उन दिनों आयात नीति पर वाणिज्‍य मंत्री, वित्‍त मंत्री और प्रधानमंत्री के अनुमोदन की जरूरत थी। यह सचमुच ही वाणिज्‍य मंत्री श्री चिदंबरम की अद्भुत क्षमता थी कि वह 24 घंटे के अन्‍दर सभी अनुमोदन प्राप्‍त कर सके। 

ये बातें आज भी सार्थक हैं, क्‍योंकि हम लोग एक महत्‍वपूर्ण मोड़ पर आ गये हैं। पिछले दशक के दौरान हमने देखा है कि भारत एक नई ऊर्जा से ओत-प्रोत हो रहा है। इस संबंध में चर्चा करना महत्‍वपूर्ण होगा।

पिछले दशक के दौरान जब देश की अर्थव्‍यवस्‍था में 1991 में शुरू किए गये सुधारों के सभी लाभ स्‍वीकार कर लिए, अर्थव्‍यवस्‍था लगभग 7.5 प्रतिशत की दर से बढ़ी। हमारी विकास दर 2012-13 में धीमी होकर 5 प्रतिशत पर पहुंच गयी। लेकिन हमें इस बात को लेकर निराश होने की जरूरत नहीं है और यह भी सोचने की भी जरूरत नहीं है कि हम फिर से पुराने ढर्रे पर आ गये हैं। पिछले कुछ वर्ष भारत के लिए ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए चुनौतीपूर्ण रहे हैं। हमें इसे अल्पावधि का और धीमी गति वाला संक्रमण काल समझना चाहिए। हमारी सरकार ने एक बार फिर गति में तेजी लाने का फैसला किया है। एक बार फिर हम उन लोगों को गलत साबित करेंगे जो हमेशा निषेधात्‍मक बातें करते हैं और निराशाजनक परिणामों की चर्चा करते हैं।

भारत को तेज विकास के रास्‍ते पर लाने की नीतिगत रूपरेखा 12वीं पंचवर्षीय योजना में दी गई है। इसके अनेक महत्‍वपूर्ण अंशों पर इस पुस्‍तक के अनेक लेखों में व्‍यापक चर्चा की गई है। हमें उन अर्थशास्‍त्र संबंधी असंतुलनों से निपटना है, जो रास्‍ते में आड़े आ गये हैं। इनमें से प्रमुख चुनौतियां हमें ऊर्जा, जल और जमीन वाले खंडों में मिलेंगी।

आज जो बड़ी परियोजनाएं रुकी हुई हैं, उनमें मूल सुविधा एक बड़ी बाधा है। मंत्रिमंडल की निवेश संबंधी समिति जिसे हमने स्‍थापित किया है, वह नौकरशाही विलंब के खिलाफ एक तंत्र प्रदान करती है। शहरीकरण एक नई चुनौती है जिस पर हमें ज्‍यादा ध्‍यान देने की जरूरत है।

हमारी रणनीति का उद्देश्‍य तेज विकास नहीं, बल्कि यह सुनिश्चित करना होना चाहिए कि विकास प्रकिया ज्‍यादा समावेशी हो। अनेक ऐसी नीतियां हैं जो यह उद्देश्‍य पूरा कर सकती हैं। यह हमें उन वंचित वर्गों की जरूरतें पूरी करने के लिए विशेष कार्यक्रम शुरू करने की भी जरूरत बताता है। इन वर्गों में खासतौर से अनुसूचित जा‍ति और अनुसूचित जनजातियां, अन्‍य पिछड़े वर्ग और अल्‍पसंख्‍यक शामिल हैं। हमने अनेक कार्यक्रम शुरू किए हैं। अब इनका विस्‍तार करने और इन्‍हें अधिक प्रभावी ढंग से लागू करने की जरूरत है।

पिछले पांच वर्षों की महत्‍वपूर्ण उपलब्धि रहा है वह विकास जो ज्‍यादा समावेशी था। कृषि विकास तेज हो गया है और वह दसवीं योजना के 2.4 चार प्रतिशत की जगह 11वीं योजना के दौरान 3.6 प्रतिशत हो गया है। गरीबी का तेजी से उन्‍मूलन हो रहा है। भले ही हमारे व्‍यावसायिक जनों में इस मुद्दे पर विवाद रहे हों। ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्‍यक्ति पीछे खपत बढ़ 2004-05 में पहले के मुकाबले बढ़ गई है। पहले के बीमारू कहे जाने वाले राज्‍य काफी अच्‍छा काम कर रहे हैं। ऊपर कही गई बातों से सुझाव मिलता है कि देश में त्‍वरित और समावेशी विकास के सभी घटक मौजूद हैं।

हमें यह जानकर बहुत खुशी होती है कि हमारे मंत्रिमंडल के साथी भी निवेश की गति बढ़ाने, रोजगार के नये अवसर पैदा करने, प्रतियोगिता की ताकतों को बल प्रदान करने और सबसे बड़ी बात तो यह कि सामाजिक विकास की प्रक्रिया को अधिक समावेशी बनाने की कोशिशें कर रहे हैं।

मैं देखता हूं कि हमारे युवा साथी लोग महत्‍वपूर्ण मूल सुविधा से जुड़े मंत्रालयों का काम तेज करने के लिए बहुत समर्पण के साथ कड़ी मेहनत कर रहें हैं। इसके लिए वे श्री चिदंबरम जैसे वरिष्‍ठ साथियों से प्रेरणा प्राप्‍त करते हैं। श्री चिदंबरम ने कड़ी मेहनत करके साबित कर दिया है कि वांछित परिणाम प्राप्‍त किए जा सकते हैं। मुझे इसमें जरा भी संशय नहीं है कि भारत एक बार फिर से जैसे ही उच्‍च गति के सामाजिक और समावेशी विकास के पथ पर आ जाता है, बेहतर परिणाम दिखाई देंगे।

भारत के लोग इसकी उम्‍मीद करते हैं। दुनिया भी इसकी की उम्‍मीद करती है और इसका इंतजार कर रही है। हम आपको भरोसा दिलाते हैं हम उन्‍हें निराशा नहीं करेंगे।

हमारे सामने जो विशाल कार्य मौजूद है, हम उसे कम करके नहीं आँकते। जैसा कि 12वीं योजना में कहा गया है, हमारी वांछित आठ प्रतिशत प्रतिवर्ष की औसत वृद्धि दर व्‍यापार अथवा सामान्‍य नीतियों से नहीं आएगी। हमें इसके लिए डट कर और निश्चित रूप से काम करना होगा।

प्रधानमंत्री की हैसियत से मैं तब बहुत सुदृढ़ महसूस करता हूं जब यह सोचता हूं कि हमारा वित्‍त मंत्री इस बात को पूरी तरह समझता है और राजनीतिक नेतृत्‍व प्रदान करते हुए जोखिम उठाने में सक्षम है। वह सिर्फ प्रतिभाशाली ही नहीं, बल्कि अंतिम परिणामों के लिए समर्पित है। वह राजनीतिक रूप से भी सक्षम है। यही वह सारे गुण है जो श्री चिंदबरम को ऐसा नेता बना देते हैं जो राष्‍ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय रूप से प्रतिष्‍ठा प्राप्‍त करने में सक्षम है।

मैं श्री समीर कोछड़ और अन्‍य लेखकों को बधाई देता हूं जिन्‍होंने यह स्‍मरणीय ग्रंथ तैयार किया है। कुल मिलाकर इन लेखों में उस विकास नीति की तस्‍वीर पेश की गई है जो हमारे सामने है।

इन शब्‍दों के साथ मैं श्री चिदंबरम को एक लंबे स्वस्थ उद्देश्‍यपूर्ण जीवन की कामना करता हूं। उन्‍होंने राष्ट्र को गौरवान्वित किया है। अभी उन्‍हें विश्राम से पहले कई मीलों का सफर करना है। मैं उनके लिए कंटकविहीन पथ की कामना करता है।"