भाषण [वापस जाएं]

April 5, 2013
नई दिल्ली


ग्रीन नेशनल अकाउंटिंग फॉर इंडिया की कार्यशाला में प्रधानमंत्री का संबोधन

प्रधानमंत्री ने आज नई दिल्ली में ग्रीन नेशनल अकाउंटिंग फोर इंडिया की अंतर्राष्ट्रीय कार्यशाला को संबोधित किया। इस अवसर पर डॉ0 मनमोहन सिंह के भाषण का मूल पाठ नीचे दिया जा रहा है:-

मुझे आपकी इस कार्यशाला में आकर बहुत खुशी हो रही है। आपने ग्रीन नेशनल अकाउंटिंग फॉर इंडिया की यह कार्यशाला रूपरेखा विकसित करने के लिए आयोजित की है और यह मेरे लिए बहुत खुशी की बात है कि मैं यहां आकर अर्थशास्‍त्र, सांख्यिकी और पर्यावरण संबंधी विवरण तैयार करने के क्षेत्र में अनेक अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों को संबोधित कर रहा हूं। मुझे खासतौर से इस बात की खुशी है कि यहां आकर मैं दुनिया के अर्थशास्त्र क्षेत्र में कई जाने-माने विद्वानों और पुराने मित्रों से मिल सका। इनमें प्रो0 सर पार्थ दास गुप्ता प्रमुख हैं, जो हमारे लिए इस महत्वपूर्ण प्रयास की अगुवाई कर रहे हैं। यह अवसर खास तौर से बहुत सामयिक है और भारत की 12वीं पंचवर्षीय योजना के समय इस आयोजित करना उपयुक्‍त है। यह योजना ज्यादा तेज अधिक समावेशी और निरंतर विकास वाली होगी और इसका उद्देश्‍य यह भी होगा कि मेरा विश्‍वास है कि भारत सतत विकास की अवधारणा स्पष्ट करने में प्रमुख भूमिका निभा सकता है और उसे निभाना चाहिए।

भारत देश का नियोजित आर्थिक विकास करने के लिए प्रतिबद्ध है और यह इस बात का भी प्रतीक है कि भारत सरकार ने लोगों की आर्थिक स्थिति में सुधार लाने का दृढ़ निश्चिय किया हुआ है। सरकार ने इसके लिए अनेक प्रकार के सामाजिक, आर्थिक और संस्थागत उपाए किए हैं और वह इस दिशा में उपयुक्त परिणाम दिखाने में प्रमुख भूमिका निभा रही है। जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था का विकास हो रहा है, नई चुनौतियों का सामना करने के लिए हमारी क्षमता तेजी से बढ़ रही है। उदाहरण के लिए हमारे प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं। अत: हमें यह फैसला करने की जरूरत है कि इन दुर्लभ संसाधनों का सोच-समझकर उपयोग करें और हमें इसके बारे में आर्थिक विकास तथा निरंतरता के परिपेक्ष में सोचना है।

प्राय: आर्थिक नीतियां इस प्रकार बनाई जाती है, जो विकास और वृद्धि को प्रोत्साहित करें। लेकिन ऐसा करते समय यह नहीं सोचा जाता कि इन नीतियों का पर्यावरण पर क्‍या असर पड़ेगा। शायद यह सोच लिया जाता है कि इन नतीजों से बाद में और अलग से निपट लिया जाएगा। इस बात के सबूत है जो यह संकेत देते हैं कि कुछ ऐसी नीतियां हैं, जिनके परिणाम मानव मात्र के कल्‍याण के विपरीत होंगे। हालांकि इस अवधारणा की मात्रा आसानी से तय नहीं की जा सकती। अंतर्राष्‍ट्रीय रूप से पर्यावरण संबंधी क्षरण उपजाऊ भूमि के मरूस्‍थल के रूप में बदलने, वनों के कम हो जाने, ताजा पानी की उपलब्‍धता घट जाने और जैव विविधता में बहुत कमी आने के रूप में दिखाई देती है। इनके गंभीर परिणाम होते हैं और आज हमें यह स्‍पष्‍ट हो गया है कि आर्थिक विकास को पर्यावरण के उपयुक्‍त होना चाहिए।

जैसा कि ब्रंटलैंड कमीशन 1987 में परिभाषित किया था और नितिन जो यहां बैठे हुए हैं, तथा इस रिपोर्ट के तैयार करने वालों में प्रमुख थे, लिखा था सतत विकास वो विकास है जो वर्तमान की जरूरतें तो पूरी करता है लेकिन भावी पीढि़यों को उनकी जरूरतें पूरी करने की क्षमता में कमी नहीं आने देता। सतत विकास की अवधारणा के बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है। लेकिन कुल मिलाकर अभी इसके परिणाम मिलने बाकी हैं। सतत विकास की अवधारणा को नया अर्थ प्रदान करने के लिए काफी मात्रा में अच्‍छा काम किए जाने की जरूरत है। यह भी तथ्‍य है कि आर्थिक विकास का दिग्‍दर्शन निरंतरता के उस विचार के अनुसार होना चाहिए, जिसे अब दुनियाभर में स्‍वीकार किया जाता है।

नियोजित आर्थिक विकास के जरिए भारत ने आर्थिक विकास, गरीबी हटाने और निरंतर तरीके से ऐसा करते जाने का लक्ष्‍य रखा है। यह इसलिए और भी महत्‍वपूर्ण हो जाता है, क्‍योंकि भारत की जनसंख्‍या का एक महत्‍वपूर्ण भाग – गांव में रहने वाले गरीब अपने गुजर-बसर के लिए प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर करते हैं। नियोजित विकास की योजनाएं बनाते समय हमें गरीबों की जरूरतों को बराबर ध्‍यान में रखना है और इसमें निरंतरता तभी बनाई रखी जा सकती है, जब प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन सतत आधार पर किया जाए।

इस बात को ध्‍यान में रखते हुए और यह भी कि प्राकृतिक संसाधन नियोजित निवेश और विकास के लक्ष्‍य प्राप्‍त करने के महत्‍वपूर्ण घटक हैं, भारत की 12वीं पंचवर्षीय योजना ने पहली बार निरंतरता को प्रमुखता दी है। योजना के दस्‍तावेज में कहा गया है कि आर्थिक विकास तभी व्‍यावहारिक हो पाएंगे, जब उनका अनुसरण पर्यावरण की रक्षा करते हुए किया जाए और इस सिलसिले में पानी, वन और भूमि संसाधनों पर अधिक ध्‍यान दिए जाने की जरूरत है।

काफी समय से इस बात के पक्ष में तर्क दिया जाता रहा है कि समसामायिक नेशनल अकाउंटिंग व्‍यवस्‍था में लागत का ध्‍यान नहीं रखा जाता और इस बात की भी अनदेखी की जाती है कि इसका पर्यावरण, प्राकृतिक संसाधनों और सकल घरेलू उत्‍पाद पर क्या असर पड़ेगा देश के कल्‍याण के उपायों का मूल्‍यांकन करते समय इनका ध्‍यान नहीं रखा जाता, क्‍योंकि विकास के लिए कोशिशें जारी रखते हुए पर्यावरण की गिरावट का ध्‍यान नहीं रखा जाता।

राष्ट्रीय आय लेखांकन को परिसीमित करने के संभावित समाधान के रूप में समेकित पर्यावरणीय और आर्थिक लेखांकन एक नई अवधारणा के रूप में उभरा है। सभी पर्यावरणीय और आर्थिक लेखों को अलग-अलग करना तथा उनका विस्तार, भौतिक संसाधन लेखों को वित्तीय पर्यावरणीय लेखों तथा बैलेंस शीटों के साथ जोड़ना, पर्यावरणीय लागत और लाभ का आकलन तथा भौतिक संपदा के अनुरक्षण के लिए लेखांकन इस अवधारणा का मुख्य उद्देश्य है।

इस संदर्भ में आर्थिक मूल्यांकन की “आदर्श” प्रणाली के लिए वैचारिक रुपरेखा के विकास में प्रो0 सर पार्थ दास गुप्ता और उनके सहयोगी का काम सच्चे मायनों में प्रभावशाली है। केवल सकल घरेलू उत्पाद के आधार पर ही नहीं बल्कि संपदा की व्यापक परिभाषा के आधार पर अर्थव्यवस्था के मूल्यांकन की आवश्यकता का केन्द्रीय निष्कर्ष विचारणीय है। मुझे विश्वास है कि इस रिपोर्ट में रेखांकित विचार आगे के अध्ययन को दिशा देंगे और “हरित” उपायों के लिए निश्चित उपकरणों के विकास में सहायक होंगे।

भारत सरकार ने हरित भारतीय अर्थव्यवस्था की दिशा में कई कदम उठाए हैं। सततता के सिद्धांत को समाहित करती कई राष्ट्रीय नीतियां लागू की जा चुकी है। उदाहरण के लिए कोयले पर उपकर लगाकर राष्ट्रीय स्वच्छ ऊर्जा कोष की स्थापना की गई है इसके अलावा प्रतिपूरक वनरोपण कोष की भी स्थापना की गई है।

राष्ट्रीय पर्यावरण नीति 2006 में स्पष्ट किया गया है कि केवल वही विकास टिकाऊ है जिसमें पारिस्थितक बाध्यता तथा सामाजिक न्याय की अनिवार्यता हो।

राष्ट्रीय कृषि नीति देश के प्राकृतिक संसाधनों के तकनीकी रूप से उपयुक्त और आर्थिक रूप से व्यवहार्य, पर्यावरणीय रूप से गैर-क्षयकारी और सामाजिक रूप से स्वीकार्य इस्तेमाल के संवर्धन के जरिए सतत विकास पर बल देती है।

राष्ट्रीय विद्युत नीति ऊर्जा के अक्षय स्रोतों के इस्तेमाल को रेखांकित करती है।

जलवायु परिवर्तन पर भारत की राष्ट्रीय कार्य योजना में जलवायु परिवर्तन के मद्देनजर खतरों को संबोधित करने के लिए स्पष्ट नीति है। समावेशी विकास के लिए कार्बन में कमी लाने की नीतियों पर विशेषज्ञ समूह की स्थापना भी की गई है। भारत ने स्वैच्छिक रूप से वर्ष 2020 तक 2005 के स्तर के मुकाबले उत्सर्जन क्षमता को सकल घरेलू उत्पाद के 20-25 प्रतिशत तक कम करने की घरेलू प्रतिबद्धता जताई है। प्रमुख औद्योगिक बस्तियों के निकट वायु प्रदूषण की व्यापकता के स्तर को कम करने के लिए उत्सर्जन व्यापार योजनाओं के प्रयोग का प्रस्ताव भी किया है।

ग्रामीण विकास मंत्रालय का ग्रामीण विकास के “हरितीकरण” का कार्यक्रम विशेष उल्लेखनीय है। इसके तहत प्राकृतिक संसाधन के पुनरूत्पादन और संरक्षण तथा पदार्थों और तकनीक के स्वच्छ उपयोग और पर्यावरण अनुकूल उत्पाद , आजीविका, उद्यम और रोजगार सृजन की प्रक्रिया संबंधी गतिविधियां शामिल हैं। इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी बल मिलेगा और महत्वपूर्ण पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं को बरकरार रखा जा सकेगा।

उपयुक्त नीतियों द्वारा भारत के राष्ट्रीय लेखा में हरित आधार रेखा की संभावना है। पूर्ण तौर पर हरित परिप्रेक्ष्य के साथ सांख्यिकीय रूपरेखा में विविध वर्गों को समेटने और लेखा के संचयन में किसी प्रकार की परेशानी की मुझे शंका नहीं है। पर साथ ही मुझे इस बात का पूरा विश्वास है कि आपकी कार्यशाला में हुई चर्चाओं से अर्थव्यवस्था और पर्यावरण के बीच के मूल्यांकन संबंधी समस्याओं का व्यावहारिक समाधान सामने आएगा। मुझे आशा है कि सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्‍वयन मंत्रालय योजना आयोग तथा अन्य संबंधित मंत्रालयों के परामर्श से इस बेहद महत्वपूर्ण समूह की संस्तुतियों को क्रियान्वित करने में अग्रणी भूमिका अदा करेगा।

मैं एक बार फिर प्रो0 दास गुप्ता और उनके सहयोगियों को इस काम के लिए धन्यवाद देता हूं और इस कार्यशाला की सफलता की कामना करता हूं।